♦ रचनाकार: अज्ञात
सास पुतोहू दिन रात झगड़ा मचैलक, कुछु सरमो न आबै।
दाल नहिं चाउर नहिं दिया के तेल नहिं, कुछु सरमो न आबै।
बेटा त चलि गेलखिन पुरुब कमाई<ref>मजदूरी या नौकरी से धन उपार्जित करने</ref>, कुछ सरमो न आबै॥1॥
कोय कहै छिआ छिआ<ref>छी-छी; या घृणा या धिक्कार का भाव प्रकट करना</ref> कोय कहै राम राम, कुछु सरमो न आबै।
सास पुतोहू घर में झगड़ा मचैलक, कुछु सरमो न आबै॥2॥
जाड़ा से देह काँपै बदन में बोखार, कुछु सरमो न आबै।
दाबि दूबी ओढ़ि के रजाई सूतल, आपन पलँगिया।
कुछु लाजो न आबै॥3॥
शब्दार्थ
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