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साहब के जूते / कुमार विजय गुप्त

नये साहब थे
नये-नये थे जूते

नुकीले थे
रोबीले थे
आइने जैसे चमकते जूते
जिनमें शहर देखता था चेहरा

नये-नये जूतों में
गजब थी चाल उनकी अकड़ भरी
कि दिन में मच्-मच् करते जूते
और रात में करते खम्- खम्
जिनसे धमकता रहता
कलेजा शहर का हरदम

तब आम धारणा यह रही
कि जूते खाने से बनती तकदीर
और सूंघने से टूटती बेहोशी

धीरे -धीरे
धूल फ़ांकते मलिन पडते गये जूते
ठोकरें खाकर कुंद पडती गयी नोक
धीरे -धीरे, उधड़ते गये तस्मे के रेशे
घिसते गये तल्ले

अब तो जूतों पे
मले जा रहे पॅालिश
लगाई जा रही क्रीम
तेजी से फेरे जा रहे ब्रस

वही जूते पहनकर
अभी भी निकलते हैं साहब
पर नहीं रही जूते की वह खमक्