भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिगरेट/ सजीव सारथी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तलब से बेकल लबों पर,
मैं रखता हूँ - सिगरेट,
और सुलगा लेता हूँ चिंगारी,
खींचता हूँ जब दम अंदर,
तो तिलमिला उठते हैं फेफडे,
और फुंकता है कलेजा,
मगर जब धकेलता हूँ बाहर,
निकोटिन का धुवाँ,
तो ढीली पड़ जाती है,
जेहन की उलझी, कसी नसें,
कुछ पल को.

धुवें के छल्ले जैसे,
कुछ दर्द भी बाँध ले जाते हैं,
साथ अपने
हर कश के साथ मैं पीता हूँ आग,
और जला देता हूँ,
जिंदगी के दूसरे सिरे से कुछ पल,
और निकाल लेता हूँ
अपना बदला - जिंदगी से,
एश ट्रे में मसलता हूँ
सिगरेट के "बट" को ऐसे,
जैसे किसी गम का सर कुचलता हूँ,
अजीब सा सकून मिलता है....

मगर जब देखता हूँ अगले ही पल
एश ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
जिंदगी –
 
इतनी बुरी भी नही है शायद ...