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सिन्धुसारस / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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दो-एक घड़ी के लिए ही, धूपसागर की गोद में सिर्फ़ तुम और मैं
हे सिन्धु सारस,
मालाबार पहाड़ की गोद छोड़कर सुदूर लहरों के जंगले में उतरता हूँ
रहस्य की टरैनटैला-नाच रही है, मैं इस सागर किनारे चुपचाप स्तब्ध
देखता रहता हूँ बर्फ़ जैसे सफे़द डैने-आकाश की देह पर
धवल फेन की तरह नाच उठकर पृथ्वी को आनन्द जताते हैं।

मिट जाते हैं पहाड़ों के शिखर से गिद्धिनी के काले गीत,
फिर बीतती रात, हतश्वास, फिर तुम्हारे गीतों ने रचे
नया सागर, उजली धूप, हरी घास जैसे प्राण
पृथ्वी की क्लान्त छाती में फिर तुम्हारे गीत
शैल गह्वर से अँधेरी तरंग का करता है आह्वान।

जानते हो, बहुत युग बीत गये हैं? मर गये अनेकों नृपति?
सोने के बहुत धान झर गये हैं जानते हो क्यों? बहुत गहरी क्षति
हमें थका गयी है-खो दिया है आनन्द का चलन,
इच्छा, चिन्ता, स्वप्न, व्यथा, भविष्य, वर्तमान-यह वर्तमान
विरस गीत गा रहे हैं हमारे हृदय में, वेदना की हम सन्तान?

जानता हूँ पक्षी, सफे़द पक्षी, मालाबार के फेन की सन्तान,
तुम पीछे नहीं देखो, तुम्हारा कोई अतीत नहीं, स्मृति नहीं,
छाती में नहीं है आकीर्ण धूसर
पाण्डुलिपि, पृथ्वी के पक्षियों जैसी नहीं है जाड़े का दंश और कुहासे का घर।
जो रक्त बहा उसी के स्वप्न में बाँधा कल्पना का निस्संग प्रभात नहीं है-
नहीं है निम्नभूमि, नहीं आनन्द के अन्तराल में प्रश्न और चिन्ता का आघात।

स्वप्न तुमने देखा तो नहीं-पृथ्वी के सारे रास्ते, सारे सागर किसी एकान्त में,
विपरीत द्वीप में दूर मायावी के दर्पण में भेंट होती है
रूपसी के साथ अकेला, संध्या नदी की लहर में आसन्न कथा की तरह
एक रेखा उसके प्राण में-म्लान केश, आँखें उसकी लता वन की तरह काली,
एक बार स्वप्न में उसे देख लेती हैं पृथ्वी की सारी रोशनी।

डूब गया, जहाँ स्वर्ण मधु ख़त्म हो गई, जहाँ करती नहीं रसोई
मक्खी और हल्दी पत्तों की गंध से भर उठी है अविचल मैनी का मन,
मेघ की दोपहर तैरती है-सुनहली चील की छाती में मचता है उन्मन
अहा, मेघभरी दुपहरी में, धानसीढ़ी नदी के पास,
वहाँ आकाश में और पृथ्वी की घास में कोई नहीं।

तुम इस निस्तब्धता को पहचानती हो या कि रक्त के रास्ते पर पृथ्वी की धूल में
पता है कांछी, विदिशा की मुखश्री मक्खी जैसी झरती है,
सौन्दर्य ने हाथ रखा है अन्धकार और मुख के विवर में,
गहरे नीलतम चाहत और कोशिश मनुष्य की-इन्द्रधनुष पकड़ने का क्लान्त आयोजन
हेमन्त के कुहासे में मिट रहे हैं-अल्पजीवी दिन की तरह।

ये सब जानते हो क्या-प्रवाल पंजर में घिरकर डैनों के उल्लास में,
धूप में झिलमिलाते हैं सफ़ेद डैने सफ़ेद फेन बच्चों के पास
हेलिउट्रोप जैसे दोपहर के असीम आकाश में।
जगमगाते हैं धूप में बर्फ़ की तरह सफ़ेद डैने,
जबकि हम पृथ्वी के स्वप्न और चिन्ताएँ सब
उनके लिए अपरिचित और अनजाने हैं।

चंचल घास के नीड़ में कब तुमने जन्म लिया था
विषण्ण पृथ्वी छोड़कर झुंड उतरे थे सारे
अरब सागर में और चीन सागर में-
सुदूर भारत के सागरों के उत्सव में।

शीतार्थ इस पृथ्वी की आमरण चेष्टा, क्लान्ति और विह्वलता भूलकर
कब उतरे थे नील सागर के नीड़ में।

धान के रस की बातें हैं पृथ्वी-इसकी नरम गन्ध
पृथ्वी की शंखमाला नारी है वही-और उसके प्रेमी का म्लान
निस्संग मुख का रूप, सूखे तृण की तरह उसका प्राण,
नहीं जानते, कभी भी नहीं जानेंगे, बस कलरव करते उड़ जाते हैं-
शतस्निग्ध सूर्य वे, शाश्वत सूर्य की तेज़ गतिसे...