सिमरॅ के फूल / भुवनेश्वर सिंह भुवन
सेबै छी सिमरॅ के फूल।
फलित तपस्या जन-जीवन के,
सहतें-सहतें बिपत अपार,
ओर-छोर जागलै भारत के,
भागलै अंग्रेजी सरकार।
दगलै तोप, तिरंगा जड़लै,
लाल किला के घोव कलंक,
जरलै प्रगति-दीप नेहॅ सें,
जगमगलै युग के भंडार।
नाचै खुद आनन्द हिया सें,
निकसै बज्जर दुख के शूल,
कसमसबै छाती सपना के,
मन के खिड़की खुलै हजार।
चहकै नव उल्लास छितिज में,
उड़ै कल्पना पंख पसारि,
उगै नया कोंपल डाली में,
हरियाली में कोमल पात।
गजुरै ठूँठ, पवन मस्ताबै,
किलकारी दै शिशु नवजात।
शुद्ध रंग बिन गंध फुलैलै,
मरु में तपलॅ जरठ बबूल,
ठाँव-ठाँव में कमल, केतकी,
कचनारॅ के उड़ै दुकूल।
भाग्यवान चढ़लै समाधि पर,
बचलॅ फूल सिंहासन जाव,
कली-कली नेता के ग्रीवाँ,
गुलदस्ता के बीच सोहाय।
लुटलै अलंकार धरती के,
छिनलै यौवन के मुस्कान,
बुलबुल हकरै धनखेतॅ में,
बँसबिद्दा में भौर गुजान।
इन्द्रासन के सुख नेता केॅ,
सड़क पेॅ जनताँ फाँकै धूल,
अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़ सें,
थकचुरुवॅ मजदूर किसान।
जोंक टैक्स के सब धन चूसै,
हड्डी में ढुकलॅ छै प्राण,
कागज पर सौभाग्य पसरलॅ
खाली समाजवाद के बाल।
नेताँ रोज बजाबै घर-घर,
दोन्हू हाथें माँगलॅ ढोल।
रावणें हाथें सीता सौंपलाँ,
कहबै केकरा आपनॅ भूल,
धूनै छी माथॅ, लाचारी-
सेबै छीं सिमरॅ के फूल।