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सिरहाने का शोक / अमरेन्द्र

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अंधकार में बेठे हो यूँ किसकी लिए प्रतीक्षा
ले कर प्रकाश को कौन यहाँ तक आने वाला है
फिर यह जो तम सघन, कभी क्या जाने वाला है
डेग-डेग पर अपने मन की कैसी कठिन परीक्षा ।

उठो और बन जाओ खुद ही मणि का विस्तृत द्वीप
जो आलोकित करता हो गिरि-वन के भीतर मन को
धरती के श्यामल आँचल को, ऊपर नील गगन को
उठो विभा को कर में ले कर अक्षत-धूप और दीप ।

देखोगे, अंधियाले का मुँह रवि-सा चमक रहा है
रोम-रोम उसका कंचन-सा आभा लिए हुए है
नील काँच का दीप्त पुरुष ज्यों ज्वाला पिए हुए है
मृत्यु, थके की संगी साथी, मिथ्या कहाँ कहा है ।

सिरहाने में सोया है यह कौन तमिस्रापूत
जाग रहा है अब भी जबकि हो ज्योतिपुंज अवधूत ?