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सिलसिला / असंगघोष
Kavita Kosh से
क्योंकर लिखते हैं लोग
नारी के शृंगार पर
कल्पना के सागर में
गोते लगाते हुए
खोज लाते हैं,
तरह-तरह के अलंकरण,
रत्नाभूषण पहनाकर
शब्दों में बुन देते हैं
नारी का प्यार
भूल जाते हैं उसकी ममता
खो जाता है माँ का वात्सल्य
पीछे रह जाती है
बेबस मजबूरी
सामने रहता है वर्णन
नारी के अंग-प्रत्यंगों का
उनसे अछूती रह जाती हैं,
सिरबोझा ढोती
लकड़ी बेचकर पैसा पाने वाली
हाट बाजार करती
दलित मजदूरिन
जो मोल-भाव में कम पाती
क्रय करती अपनी आवश्यकता
ऊँचे भावों पर
दोनों ओर लुटी जाकर घर जाती
फिर अगला सप्ताह, अगला हाट
हर बार यही सिलसिला।