सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 8 / प्रताप नारायण सिंह
मन में उठी थी लालसा तब, देख कंचन-भव्यता
होगा नहीं कुछ भी कहीं, धारण किए यह दिव्यता
उन्माद के अंधड़ कई हिय मध्य थे चलने लगे
फिर स्वप्न कितने गर्व औ' श्रृंगार के पलने लगे
मृग चर्म ऐसा तो हमारे पास होना चाहिए
दुर्लभ नहीं कुछ श्रेष्ठतम जग के धनुर्धर के लिए
नित प्रात-संध्या बैठ इस पर प्रभु कहेंगे श्रुति-कथा
होंगे सुशोभित, किरण रथ पर उदित होते रवि यथा
चर्चा करेंगे नित्य ही सर्वत्र वनवासी सभी
होंगे चमत्कृत देखकर सब सुर, असुर, गन्धर्व भी
सब मात हर्षित देख होंगी चर्म मृग का सुनहरा
होगा नहीं उपहार कोई श्रेष्ठ इससे दूसरा
पा स्वर्ण-मृग अद्भुत बनेगी चित्रशाला राम की
सर्वत्र ही होगी प्रशंसा अवध में इस काम की
मैं रामवश थी किंतु मेरे राम थे अधिकार में
जीवांश तो हैं एक ही, हम भिन्न बस आकार में
हूँ राम की पत्नी, मगर सीता वही जो राम हैं
हम प्राण एकल, सृष्टि के बस भिन्न दो आयाम हैं