सीता-विलाप / मुकुटधर पांडेय
प्रिय प्रजारंजन हेतु न्यायी नृप न क्या कर डालता
हा! व्यर्थ का लोकापवाद किसे नहीं है सालता
वर, वृत्त है भिन्न! सचमुच चित्त देकर गेय है
अन्तःकरण से नित्य ही हम सबों का ध्येय है।
हा! छोड़ लक्ष्मण जानकी को अति विकट वन प्रान्त में
हैं लौटते रथ में चढ़, जनशून्य पथ एकान्त में
निस्तेज निष्प्रभ बदन उनका हृदय शोकित मौन है
आत्मीय की आपत्ति में होता अधीर न कौन है?
जाती नहीं रथ की ध्वजा से विपत्ति सीता की सही
उस ओर फहराती यथा सौमित्र से वह कह रही
हे वीर लक्ष्मण! लौटिये यह तो महा दुष्कर्म है
अन्याय से दुर्दण्ड देना क्या किसी को धर्म है।
दुख सोच उनका जाह्नवी मंद लहरी ले रही
आदेश मानो लौट जाने का लषण को दे रही
परवश वह आदेश लक्ष्मण चित्त में धरते नहीं
आज्ञा अथवा गुरूजनों की बुध कभी करते नहीं।
निश्चेष्ट हो मिथिलेश तनया रथा ध्वजा यों देखती
ज्यों पद्माला सूर्य की है अस्तबेला पेखती।
दुख शोक के कारण उन्हें कुछ भी सुहाता ही नहीं
दुखी जनों को सर्वथा संसार भाता है नहीं।
रथ की ध्वजा ज्यों नेत्र पथ से हाय! अंतर्हित हुई
यों वायु ताड़ित मृदुलता सी जानकी मुर्छित हुई
इस काल तक वह भूल अपना घोर दुःख गई सभी
होती हित प्रद दुखितों को सत्य ही मूर्च्छा कभी।
हत हृदय होकर अस्तु जब वह गाढ़ मूर्छा से जगी
तब विलपती कुररी सदृश उद्विग्न हो रोने लगी
नासापुटों से शोक पूरित प्रखरतर श्वासा चली
शोकाग्नि से बतलाइये किसकी नहीं काया जली।
चौदह बरस वन प्रान्त में रहते हुए दःख त्रास हा!
हो राजरानी भी किया मैंने विकट वनवास हा!
रे प्राण! है तुझको मिली सुख शान्ति क्या जग में कहीं
तो भी अभी पूरी हुई दुःख की पराकाष्ठा नहीं।
लंकेश ने बन्दी किया हर मुझे दुष्ट दुराग्रही
अकलंक भास्कर वंश में लेपन कलंक किया सही
था प्रिय समागम प्राप्त यह, चिरकाल के विच्छेद से
हा! रह सका वह भी न किन्तु विचित्र विधि के भेद से।
दुःख भोगने को ही हुआ क्या जन्म मेरा लोक में
रे दैव! क्या मुझको तुझे था डालना ही शोक में
सुधि कौन अब लेगा कहो इस प्राण प्रति पतिहीन की
होगी दशा क्या-क्या नहीं जल के बिना इस मीन की।
हे प्रभु! दयामय आपका मन तो दया की खान है
कैसे किया यह कार्य फिर हा! यह कठोर महान है
मुख पद्म किसका देखकर हा नाथ! इस संसार में
यापन करूँगी शेष जीवन दुःख कारागार में।
यह प्राण मेरा ही मुझे अब हो रहा अति भार है
जो तुम तिबना हे नाथ! निश्चय विफल और असार है
प्रियतम! किया है त्याग क्या सचमुच मुझे चिरकाल को
धारण करूँगी किस तरह इस घोर जीवन जाल को।
बचेगी कमलिनी हा! न मज्जु मृणाल से विच्छिन्न है
जलहीन व्याकुल मीन की गति मृत्यु एक अभिन्न है
सौदामिनी धन के बिना है रह कभी सकती नहीं
काया विहीना दिखती छाया कदापि न है कहीं।
हे नाथ फिर बताइये पूर्णेन्दु मुख दर्शन बिना
किस भाँति मैं जीवित रहूँ श्री पद नलिन स्पर्शन बिना
छोड़े चरण सेवा यद्यपि थोड़ा समय बीता अभी
लगतीं मुझे तो भी प्रकट वे स्वप्न-सी बातें सभी।
सौमित्र! है तुमने लिया रथ तज कहाँ मुझको यहीं
जाऊँ कहाँ हा! राह मुझको सूझ पड़ती है नहीं
हत भागिनी एकाकिनी इस दुःखिनी को अब अहो
देगा विजन इस गहन वन में कौन जन आश्रय कहो।
कहती हुई ऐसे वचन सीता विकल थी रो रही
निज भाग्य को धिक्कारती व्याकुल बहुत भी रो रही
इस समय ही देखा उन्हें बाल्मिकी ने अक्षेम से
लेकर निजाश्रम में तथा रक्खा सुतावत् प्रेम से।
कुछ दिवस बीते फिर वहाँ उनसे यथोचित काल में
उत्पन्न युगल सुत हुए मृदु लता के जाल में
मुख देख उनका ज्ञान की कुछ और ही दुःखित हुई
करके स्मरण निज चित्त में यह बाल अति विचलित हुई।
हा! आज दिन सारी अयोध्या पुत्र उत्सव से परे
आनन्द सागर में निमग्न भले हुआ रहता हरे
छाया हुआ होता अमित उत्साह चारों ओर से
पूरित हुई होती दिशाएँ वाद्यनाद हिलोर से।
करते हुए क्रीड़ा अनेकों मृदुल हास्य विनोद से
बढ़ने लगे दोनों तनय वन में अलौकिक मोद से
सुनकर अहा! उनकी मनोहर तोतली बातें सभी
रोती कभी थी जानकी दुःख भूल जाती थी सभी।
थी सोचती निज चित्त में हा! भाग्य मेरा मन्दहै
दुःख भोगते जाते दिवस अब वह वहाँ आनन्द है
हो राज सुत भी सुत पड़े दुर्भाग्य में दुःख पंक में
बैठे हुए रहते नहीं तो आज ये नृप अंक में।
दुःख भूलकर कुछ जानकी थे तनय जब अज्ञान में
पोषण-भरण में लीन थी धारे उन्हीं को ध्यान में
चिन्ता गई सब किन्तु उनकी जब हुए वे कुछ बड़े
फिर पूर्व के परिणाम में दुःख टूट सीता पर पड़े।
वन में ससुख दिन काटती थी जानकी पति संग में
पर हा! तपोधन में वही बहती विपत्ति तरंग में
हे प्रणय! तुमको धन्य है एक जग में सार है
तू अमृत का आकार तथा तू ही गरल आधार है।
है धन सघन छाए हुए पावस निशा आकाश में
वन जन्तु शंकित है सभी जल वृष्टि शर के मास में
करते हुए झर-झर विकट निर्झर अनेकों बह रहे
भीषण पवन के वेग से दुःख डाल तरु हैं सह रहे।
सारी अवनि निद्रित महा निस्तब्धता के संग है
झंकार झिल्ली की उसे करती कभी बस भंग है
छाया हुआ है घोर तम सर्वत्र ही संसार में
है चन्द्रमा तारे न दखिते छिपे मेघ अपार में।
ऐसे समय पर जानकी ही दुःख से रोती हुई
बैठी हुई चित्त में अतिशय विकल होती हुई
है आर्द्र युग्म कपोल दल नेत्राम्बु-धारा पात से
है सोचती नाना विषय मन में सशंकित गात से।
शैशव निलय पश्चात उस सुखमय अवध आवास का
वनवास अवसर संग ही लंकेश के गृहवास का
करते स्मरण चारों ओर दुःख की घटा है घिर रही
श्रीराम की वह छवि मनोहर नेत्र सम्मुख फिर रही।
शरदागमन से ही मुदित खंजन रुचिर डोलते
वे जानकी के दुःख में थे गरल मानों घोलते
सुन चक्रवाक-प्रेयसी का करुण निःस्पन दुःख भार
सम्बोध करती जानकी देकर उसे यों आसार।
होते सबेरे ही हरे! प्रिय से मिलेगी जा अहा!
करती बिहंगिनी तथापि तू इस भाँति है रोदन महा
आमरण मेरा प्रिय समागम किन्तु अब होगा कहाँ
हत भागिनी मैं हाय! तो भी कुशल हूँ जीवित यहाँ।
जब कूकती कोकिल कलित तरु मध्य नव्य बसन्त में
बढ़ती व्यथा तब जानकी के मृदु हृदय के अंत में
नव पल्लवित तरु पुँज और निकुंज जो छवि शाल थे
वे जानकी को उस समय प्रत्यक्ष दुःख के जाल थे।
विधु और चंचल मेघ ग्रीष्मकाल में अवलोक के
थी सोचती यह जानकी पड़ सिन्धु मंे दुःख शोक के
नीरद पटल से चन्द्र क्ष्ज्ञण में मुक्त होता है सही
दुःख और सुख से सत्य ही है पूर्ण यह सारी मही।
दुःख के गये सुख प्राप्ति फिर संसार का यह ढंग है
पर दुःख भोगूँगी निरन्तर दुख मेरे संग है
दुःख मेघ भीषण नित्य ही मेरे लिए आसन्न है
सुख चन्द्रमा मेरा हरे! चिरकाल मेघाच्छन्न है।
मेरा दिवस जाता नहीं होता न सूरज अस्त है
मन प्राण मेरा नित्य ही दुःख ग्रस्त अब तो व्यस्त है
एकाकिनी मैं किस तरह इस दीर्घ जीवन राह में
निज पथ चलूँ! असहाय हो जलती दुःखद दुःखदाह में।
परितृप्त अब होंगे न ये मेरे पिपासित नेत्र क्या
होगा नहीं अब शान्त मेरा दग्ध हृदय क्षेत्र क्या
इस यातना से प्राण! तुम विश्राम क्यों पाते नहीं
निर्लज्जता ऐसी! भला तुम क्यों निकल जाते नहीं।
दिन मास ऋतु फिर वर्ष पर भी वर्ष बीता जा रहा
दुःख जानकी का किन्तु नित है वृद्धि को ही पा रहा
इस भांति बारह वर्ष तक सीता निपट छबि छीन हो
दुःख से रही वन में शिशिर की पद्मिनी-सी क्षीण हो।
धिक्कारने के योग्य तेरी धारणा संसार है
जा देख सीता के विपिन में क्या विषम व्यापार है
है निष्कलंकिनी जानकी दुर्वृत्त जग तू जान ले
इस बात की साक्षी प्रकट वे हैं, स्वयं अनुमान ले।