सीमा प्रहरी 'जंगल' / मृदुला शुक्ला
भीतर उमड़ घुमड़ बरसता है मन
और बाहर बढ़ जाती है उमस
बचपन मैं भागते वक्त तितलियों के पीछे
पकड लेते थे तुम कई कीट पतंगे
और हथेलियों पर लेकर कर घूमते थे मकड़ियाँ
दादी के कहे के यकीन पर
की अब मुझे मिलेंगे नए कपडे
मगर सुनो है की इन जंगलों मैं जहरीले होते हैं कीट पतंगे
और वो बचपन की नए कपडे वाली मकड़ियाँ
तुम घिर जाते हो अचानक
एक अनजानी हरियाली से
हर पत्ता तो अनचीन्हा सा लगता है
अकेले मैं जिन्दगी तपती है
जेठ की दुपहरी सी
बियाबान में साफ़ दिखती हैं पगडंडियाँ
मगर बरसते ही बादलों के
खो जाते हैं तमाम रस्ते और
उनमे बढ़ जाते हैं साँप और बिच्छू
तुम कहाँ समझ पाते हो
की ताप भीतर ज्यादा है या बाहर
नमी मौसम मैं ज्यादा है या आँखों में
मत समझो इसे ,बस तपते रहो
क्यूंकि तुम्हारे ताप की
आग में पकते हैं एक मुल्क की मीठी नींद के सपने