सुनो अर्जुन - 1 / रश्मि प्रभा
अर्जुन,
जब मैं राम बना था,
तब मेरा ही अंश क्रमशः
भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न थे।
लेकिन किलकारी को आतुर
पिता दशरथ और तीनों माताओं ने
मेरे पहले आने के हर्ष में
अधिकांश वक़्त मेरी बाल लीला को दिया
अतिरिक्त खीर का मिठास मुझे दिया...
आज्ञाकारी भाइयों के मन में खराश का होना
या बाकी दोनों माताओं
कैकेई और सुमित्रा की उदासी
अनकही होकर भी
एक स्वाभाविक स्थिति थी,
शायद इसी दृष्टिकोण में
हमारे मध्य
सहज भाई-बहनों जैसी लड़ाई नहीं हुई।
वनवास मुझे मिला था,
परन्तु पतिव्रता धर्म निभाने में
माँ सुमित्रा ने
भाई लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दिया
तो मैं और सीता
उर्मिला के आगे दोषी हो गए।
यह भाई होने का कर्तव्य निभाने जैसा
बिल्कुल नहीं था,
बेवजह वजह बनाकर
बिना किसी वचन के
लक्ष्मण को भी चौदह वर्षों का वनवास मिला।
नाना के घर से
जब भाई भरत और शत्रुघ्न लौटे
तो पूरी अयोध्या
भरत को उपेक्षित नज़रों से देख रही थी,
भरत के लिए तनिक भी आसान नहीं था
अयोध्या का राजा बन जाना!
और ऐसी विषम परिस्थिति की जिम्मेदार
माता कैकेई हुईं
लज्जा तो आनी ही थी भरत को।
उसके चित्रकूट आने पर
लक्ष्मण का क्रोध -
जिसे शंका मान लिया गया,
उसके युवा मन के जबरन त्याग का परिणाम था।
मेरी पादुका सिंहासन पर रख
भरत भी मांडवी से दूर रहा,
निश्चय ही इसीका दंड था
की चौदह वर्षों के बाद
कोशल लौटने पर
मैं भी
सीता से दूर हो गया
...हमेशा के लिए!
कर्म अपना हो
या जन्मदाताओं का
अंतर क्या!
श्राप या वरदान
फल तो भरना ही पड़ता है,
परिणाम की धधकती अग्निगुहा से
गुजरना ही पड़ता है।