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सुनो मान्धाता / वैभव भारतीय

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सुनो मान्धाता!
सुना है कि तुमने ये जीती थी दुनिया।
नहीं छोड़ा कुछ भी
नदी वृक्ष पर्वत
मरू खोह बंजर
दसीयों दिशायें
गगनपाल, दिकपाल
सबको था जीता
नहीं कुछ था बाक़ी।

लिए जब चले थे
तुम चतुरंगिणी को
व अक्षौहिणी को
गगन खूब गूंजा
धरा खूब काँपी
थी लय दुमदुभी की
बजे खूब मादल
थे युद्धों के बादल।

मगर मैंने चाहा कि देखूँगा फिर से।
ये दुनिया ये धंधा
ये माया का फंदा
ये पाने की ख़ुशियाँ
ये खोने का रोना
ये पूछूँगा तुमसे
कि क्या पाया तुमने
कि क्या खोया तुमने।
क्या सचमुच ही जीता
था तुमने धरा को?
क्या पृथ्वी महज़ है
ये मिट्टी की गोली
था जैसा भी चाहा
नचाया था उसको
या पृथ्वी समुच्चय है
श्वासों का सस्वर?
क्या तुमको पता था?
इसी कुल में राघव
जन्म लेंगे इक दिन
जो त्यागेंगे सिय को
प्रजारंजन हेतु।
बताया तो होगा
किसी दिन गुरु ने।
हुआ कैसे इतना
था अंतर हृदय में?
की लेकर चले थे
फ़तह करने पृथ्वी
सकल सैन्य बल को।
क्या।
शिला जीतना ही धरा जीतना है?
चला है कभी जो ये पहिया समय का
बचा है ना कुछ भी
सिवा सीयपति के।