भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुन ओ मेरे पति! अरे ओ पुरुष! / सलमा
Kavita Kosh से
जिस घर में रहती हूँ
मेरा नहीं, तुम्हारा है;
हैं जो मेरे पदचिह्न
वे नहीं हैं साक्षी मेरे यहाँ रहने के...
ये तुम्हारा घर
इसकी सुख-सुविधाएँ
मेरे भीतर जगाती हैं
बाहर की दुनिया का डर
हर घड़ी, घिरी अनजान घबराहट से
खुद पर हावी अविश्वास...
कड़ी धूप में
मूसलाधार बारिश में
अन्य समय से अधिक
घर में रहने से अधिक
घर से बाहर
मेरे साथ साथ निकलती हैं
तुम्हारी हिदायतें
मेरे कानों में बजती हैं
बीमार है
तन और मन...
मूल तमिल से अनुवाद : कमलिनी दत्त