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सुबह हमसे बाहर हो रही थी / चन्द्रकान्त देवताले
Kavita Kosh से
हम लोगों से बाहर सुबह हो रही थी
हम खड़े थे ख़ामोशी के भीतर
पानी की तलवार चमकाते हुए
गर्मी थी
मई से ज्यादह
गर्मी से अधिक थी मजबूरी पानी की
ख़्वाहिश से कम नहीं थी गले में प्यास
प्यास थी बहते हुए पानी के लिए
पानी था तलवार में तना हुआ
नदी थी ताबूत में
ताबूत था नहीं हमारा
कंधे थे हमारे ताबूत ढोते हुए
पाँव थे हमारे
पर चाबुक थे उनके
उनके थे उन्हीं के हाथों में चाबुक
जो दौड़ा रहे थे पाँवों को हमारे
दोपहरी थी सदी जितनी
पसीना था नदी जितना
नदी ताबूत में थी
ताबूत था डिबिया बराबर
चाबुक थे तिनके के समान
फिर भी सुबह हमसे बाहर हो रही थी