भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुशरमाकथा / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान
Kavita Kosh से
बर दुराचारी दुष्ट पापिष्ट बभनमा हो।
सुशरमा नाम से परसिध हो सांवलिया॥
दिन रात पाप करैय अगनित जीव मारैय।
चोरी सें ते पेट भरैय लोभी हो सांवलिया॥
गाली गलौज करैय हरदम ढींग हाकैय।
गांजा शराब ताड़ी पियैब हो सांवलिया॥
बाप के कमैल धन माय के सेंतल कोष।
कसमीनियां के घरवां लुटाबै हो सांवलिया॥
दान पुन तीरथ बरत शुभ करम हो।
सुझियो परैय पापी मन हो सांवलिया॥
कभीयो न बोलैय रामा मीठी मीठी बोलिया हो।
छल से सानल कटु-मधु हो सांवलिया॥
एक दिन बन बन फिरता अभागा रामा।
बकरी चरात उतपात हो सांवलिया॥
कुंज बीच घुसैब रामा कोड़ैय बड़ैय बिलबा हो।
बिषधर नाग डंस मारैय हो सांवलिया॥
वोकरो जहर रामा नस-नास खीड़ी गेलैय।
तुरतहीं चितपत भेलैय हो सांवलिया॥