भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुसरै जी से अरज करूं थी / हरियाणवी
Kavita Kosh से
हरियाणवी लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
सुसरै जी से अरज करूं थी
मन्नै हरी हरी दाख मंगाद्यो जी
बहू इस रुत मैं दाख नहीं सै
मेवा मिसरी खाल्यो जी
बालम जी से अरज करूं थी
मन्नै हरी हरी दाख मंगाद्यो जी
ओ गए पंसारी की दुकान पै
ल्याए हरी हरी दाख तुला कै
खा कै सोई पिलंग पै
बालम तै कर री बात बड़े प्यार तै
जो गोरी थम छोरी जणोगी
बुरी बात करो गी हम तै
जो गोरी थम पुत जणोगी
दाख मंगा द्यूं और कहीं तै