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सूखी हैं नदियों की छातियां / रमेश तैलंग

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नदियों की
छातियां सूखी हैं
और आंखें भरी।
आंखों का जल
दूध नहीं होता।
अधनंगे,
कृषकाय वृक्ष
सब समझते हैं
इसलिए रोते भी हैं
तो आवाज नहीं होती।

आवाज पैदा करने के लिए
मुंह में निवाला चाहिए।
पर नदियों की
छातियां सूखी हैं
और आंखें भरीं।

पहाड़ों का धीरज
टूटने लगा है
शिलाखंडों की तरह।
अब तय है
किनारे की बस्तियों में
घुसेगा
सूखी छातियों वाली
नदियों की आंखों का जल
और बस्तियों के जिस्म पर
लगे घाव
बरसों में जाकर भरेंगे।

नदियां-कुंआरी नहीं
नदियां बांझ भी नहीं,
फिर क्यूं नहीं उतरता
अब उनकी छातियों में दूध?