भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूखे तरुवर की शाखों पर / उमेश कुमार राठी
Kavita Kosh से
सूखे तरुवर की शाखों पर
ताल बजाते पण
जीवन की इस पगडंडी पर
शेष बचा पतझड़
खाल पसीने से गलती है
धूल भरी आँधी चलती है
रहता है अँधहड़
आब नहीं तेजाब मिला है
कैसा प्यार जवाब मिला है
हर हिजाब के अंदर केवल
दिखती है गड़बड़
तेज हवा के झोंके आते
गंध सुगंध विभा ले आते
चुनरी उड़ती जब दामन से
करती है फड़फड़
आदत में बदलाव नहीं कुछ
चाहत से अलगाव नहीं कुछ
सिर पर पल्लू रखने से भी
होती है चिड़चिड़
रेत नदी में जब बचती है
जेठ दुपहरी में तपती है
दुख देता पग के छालों को
रेतीला कण कण
सेज सुमन पर प्यार मिला था
प्रीतम का उपहार मिला था
सुधियों की प्रेमिल खिड़की अब
करती है खड़खड़
होती जब बरसात अचानक
बन जाती तब रात कथानक
मीत सदा अंबर में बिजुरी
करती है तड़तड़