भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरज-४ / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
रेत पर
पूरे दिन
तपता है
कत्तई प्यासा
बेचारा सूरज !
प्यासा ही चला गया
पूर्व से पश्चिम !
धरती के अंतस्थ
पानी तो था
परन्तु पूछने की
हिम्मत नहीं थी
जानता था सूरज !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"