सूरज की तकलीफ / अम्बिका दत्त
वह यूं करके
मुट्ठी में दबाता है - कागज का मेमना
आश्चर्य ! यह क्या देखा उसने
उसकी अंगुलियों के बीच से
नहीं बहता पसीने का कोई रेला
और न ही रिसती है
कोई खून की रेखा
यहां तक कि कोई द्रव भी नहीं
बल्कि, उल्टे रूख से
ऊपर चढ़ने लगती है
हाथ की नसों में सुन्न।
क्या फर्क पड़ता है
एक आदमी को
शतरंज के मोहरे की तरह मुण्डी पकड़ कर
लाइन में सबसे पीछे से उठाकर
सबसे आगे
या कुछ आगे रख दिया जाए
आखिर लाइन जब तक रहेगी
किसी न किसी को तो
सबसे पीछे रहना है
यहां खत्म नही होती उसकी बात
उसे यह भी कहना है कि
वो जो, बस्तों में बंधे खेतों में
कटे हुए अंगुठे की फसल के बीच
जंग लगी/लोहे की जरीब पड़ी है
बुरा न मानों, मेरे मालिक !
यह जो मेरा बाप है
आज से नही
जन्म से गरीब है
और यह जो
बिना धुले/कलफ लगे कपड़े से ढका
जो मचान है
हां, जिसके घुटने में गठिया है
और आंखों में मोतियाबिन्द है
वो, मेरी मां है।
मैं देख नही सकता
मगर सुन सकता हूं
पास के मकान में कोई डिनर है
करड़-करड़ और चपड़-चपड़ की आवाज है
शायद ! हड्डियां सूखी है
मगर उनमें चिपका
मांस गीला है
मैं देख सकता हूं