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सूरज को कल फिर आना है / राघवेन्द्र शुक्ल

सूरज को कल फिर आना है,

तप्त-खिन्न से पत्थर बोले,
तनिक सांस ले, बाँहें खोले।
शीत चांदनी से नहला दो
ऐ चंदा-सर! हौले-हौले।
शीतलता का दीप जला दो,
ज्वाल-अंध कल फिर छाना है।

दीप अगिन थे कभी जलाए,
उनका अब प्रकाश ना भाए,
चंद्र-खिलौने पर अड़कर, अब
हठवश हो सब दीप बुझाए।
उसे पता क्या नहीं! पूर्णिमा
को कुछ दिन में ढल जाना है।

जीवन के अर्जन में क्या है?
जो भी है, सब कुछ धुंधला है।
लघुता को निज बीज बनाकर
जो उग जाए वही फला है।
जो पत्थर ठोकर में हैं, कल
उनको ही पूजा जाना है।

सविता पर निर्भर क्या रहना?
कविता की भाषा क्या कहना?
जीवन के इस महायज्ञ में,
हविता सत्य, सत्य है दहना।
समर सिंधु में नाव, तिरोहण
या फिर पार उतर जाना है।