सूर्य-रथ की धुरी / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
क्या ज़रूरी है-
कि रेगिस्तान ही हो
सूर्य का रथ देखने के लिए ?
क्या यही है शाप,-
रथ के बद्ध और अदृश्य-
घोड़े ही सदा दीखें......?
क्या शिकायत है किरण से सिर्फ़ इतनी,-
- क्यों न ठंडे लौह-युग में
दाह भरती है......?
क्या विनय है देवता से बस, यही-
‘आओ, गुनाहों की जमीं बे-मौत मरती है ?’
क्यों विवशता है-
कि अन्धे काल की ही
ग्रन्थियाँ खोलूँ,
या नदी की प्यास सीखूँ, टूटती परछाईयों से चाँद को तोलूँ ?
क्या मिलेगा-
यदि हिमालय मान लूँ
इस बर्फ़-कुल्फ़ी को ?
युधिष्ठिर से तेनजिङ् तक की विराट परम्परा को
चूसकर बोलूँ ?
अरे गुरु ! तुम रहे गुड़ ही,
कहीं गोबर न बनना भुरभुरी,
चीनी हुए चेले, कसौटी पर कसौटी है खड़ी !
उभरती पीढ़ियाँ ये-
भूमि के वश में करेंगी
सूर्य-रथ की धुरी !
सम क्या ? विषम क्या ?
हर ओर बजती ही रहेगी
सरचढ़ी, जादू-भरी
यह अभ्युदय की तुरी...!