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सृष्टि / न्गुएन चाय / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
शाम हुई मैं घूम रहा हूँ,
खुली आँखों दृश्यों को चूम रहा हूँ,
पक्षी उड़ें विशाल वितान में ऊपर,
मैं इस उड़ान से महरूम रहा हूँ ।
हवा दिखाए कुछ रौद्र रूप अपना,
तेज़ हवा में डोलें पेड़ों की डगालें,
बादल घिर आएँ फिर काले-काले,
उत्तंग शिखरों को आँचल में छुपा लें ।
पृथ्वी बिल्कुल वैसी की वैसी,
और जल भी बिल्कुल वैसा,
खिला हुआ है गोल चन्द्रमा,
बिल्कुल पहले के जैसा ।
मेरे मन में न कोई असन्तोष है
मन ख़ाली का ख़ाली
न अमर होने की धींगा-मुश्ती
न विचार कोई वैभवशाली ।
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय