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सैंतीस घरां रौ गांव / नन्द भारद्वाज

सैर रै पसवाड़ै
सूधै जीवण रौ परियांण
सिरकतौ सींवां सोधै -
अेक सैंतीस घरां रौ गांव,
चौगिड़दै सून्याड़ पड़ी है
बधती आबादी री अबखाई
अठै सूती खुरड़ाटा भरै,
धिराणी सगळै दिन बैठी
थूक बिलौवै,
कंवळै माथै उडीकता टाबर
        गिरण करै - ‘मां भूख मरां !’
धिराणी भूजै अर दुरकार करै -
‘अबोला मरौ अघोर्यां -
क्यूं लाज गमावौ?
रम्मौ नीं बारै जाय
दिनूगै पैली कीं काम करां
       कै भूख मरां ?

काम !
सगळै दिन काम ई काम
काम रौ कांई नाम -
कब्बर खोदणौ ई काम व्है
अर बूरणौ ई काम,
      आ ई तौ कह्या करै
      औ सैंतीस घरां रौ गांव !

चवदै घर आपसरी में बंतळ करै
चौवटै में ऊभा
कंवळी रेत में कूंडाळिया काढै
लारलां री कटवीं करै
अेक-दूजै री जड़ां खोदै !

नव नगटां रा न्हौरा काढै -
खेतां में सिट्टी झड़ै
पण अठै ई
अेक नै दूजै री गरज पड़ै -
वौ सांम्ही ऊभ आंख्यां मटकावै,
जीभ नै डौढी चाढ
टिचकार्यां करै,
नाड़ हिलावै -
नव भांत रा नखरा करै !

सात सैर में पढतां छोरां रा
सिरकारू बणण रा सपना देखै,
तकदीर संवारै -
     मोद करै,
छोरै री फीस पूरी करण खातर
पेट माथै पाटी बांधै -
दिन नै लूखी सूं काम धिकावै,
रात रा खीचड़ौ रांधै !

चार चुतराई सूं
        चाकरी करै
आथमतै दिन में
आथू रै घरां हाजरी भरै -
खवास वार-तिंवार
टाबरां रै कोरणी काढै
विणायक
   तूटी क्याड़ी सूं बाथेड़ा करै !

दो मांगै
अर मसखरियां करै -
सनीदेव रा सेवग दिनूगै-दिनूगै
तिथ-वार बतावै,
स्यांमी जी झोळी लियां
गळी-गळी में अलख जगावै,
आखै दिन मढ़ी में सूता
          सांस बजावै,
सिंझ्या
मिंदर में संख अर झालर घूंकावै !

अर छेकड़लौ
आथूंणै पासै
तूट्यौ-फूट्यौ अेक डूंमां रौ घर
गांव में परदेसां री खबरां लावै -
भांत-भांत रा दूहा गावै
         ढोल बजावै,
अर आयी होळी डूंम
सैंतीस घरां रै इण गांव नै
फोर-फोर नै
गैर रमावै,
    - घरां नै गांव बणावै !

नवंबर, 1971