सॉरी / अनिल चावड़ा / मालिनी गौतम
सुबह-सुबह जब सूर्य ने
अपना चूल्हा सुलगाया
तब हम जागते हुए, अपने
ठण्डे चूल्हे के पास बैठे थे ।
ऐसा नहीं है कि मुझे अच्छी नहीं लगतीं
ओस की मधुर बूँदें,
लेकिन सुबह के गर्भ से उत्पन्न यह ओस
नरम घास पर बैठकर
अपनी महान गाथा सुनाना शुरू करे
उसके पहले ही
मेरी माँ के हाथ में उभर आए छाले
अपनी कथा कहने लगते हैं,
ओस की बूँदें स्वयं को मोती सिद्ध करें
उसके पहले पैरों में पड़े हुए गूमड़े
ख़ुद को ‘कोहिनूर’ साबित कर चुके होते हैं,
‘सुबह कमल सरोवर में स्नान करते हैं’ इस कल्पना के वक़्त तो
हम धूल-मिट्टी और पसीने से लथपथ हो चुके होते हैं ।
वन्दन ! धुआँधार बरसती बारिश के रुआब को
मैं दोनों हाथ जोड़कर वन्दन करता हूँ,
लेकिन मुझे तो मूसलाधार बरसात में
सिर छुपाने के लिए आश्रय देते छप्पर की कल्पना अधिक प्रिय लगती है ।
मुझे याद है
एक दिन कोयले की भट्टी में काम करते-करते
माँ जल गई थी और
एक बड़े-से अर्द्ध गोलाकार फफोले के साथ-साथ
अनेक छोटे-छोटे छाले भी
उभर आए थे उनके हाथ पर
मुझे उसमें एक जला हुआ चाँद
और सैकड़ो बुझते हुए तारे नज़र आए
बस, इतनी छोटी-सी कविता ही रच सका था मन में...
मेरा कल्पनाशील चेहरा देखकर
माँ ने पूछा था —
“पेट भरा हुआ लग रहा है तेरा, कुछ खाकर आया है क्या ?”
मैं चुप रहा
किस मुँह से बोलता कि
सेठ की भरपेट गालियाँ खाई हैं...
तुम जब धूप में नहाये हुए खेतों का
अद्भुत कल्पना चित्र प्रस्तुत करते हो,
तब मेरे पेट में पक रहा होता है
एक गीत का मुखड़ा कि
“पूरा आकाश एक धधकता चूल्हा और सूरज है एक गरम रोटी...”
तुम कहते हो,
“साँझ ढले सूरज कैसे अनोखे रंग बिखेरता है क्षितिज पर, है न ?”
आई एग्री
लाख-लाख सलाम हैं सूर्य के केसरिया रंग को
किरणों की कूँची को !
लेकिन हमारे जीवन में अस्त हुआ सूर्य
मुझे क्षितिज पर रंगों की कल्पना नहीं करने देता...
मुझे तो उसमें अपनी माँ की माँग रूपी आकाश के
अस्त हो चुके सूर्य के कारण
पोंछे गए सिन्दूर के
लाल-पीले दाग़ दिखाई देते हैं
जिन्हें मैं नहीं साफ़ कर पाता किसी भी पोंछे से…
प्रकृति निर्मित बहुत ठण्डी और गहरी खाई से भी
अधिक गहरा लगता है
मुझे मेरे पेट का खड्डा
प्लीज, ऐसा मत समझ लेना
कि मुझे प्रकृति से प्रेम नहीं है
लेकिन फिलहाल मैं
उस पर कोई कविता लिख सकूँ
इस स्थिति में नहीं हूँ
सॉरी !
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : मालिनी गौतम