सोचो तो औसान नदारद
बस्ती से इन्सान नदारद
किरदारों की बात ही क्या है
चेहरों की पहचान नदारद
प्यास लगे तो दरिया गायब
भूख लगे तो नान नदारद
मरने के हैं लाख बहाने
जीने का इमकान नदारद
अपने-अपने काबा-काशी
यानी हिन्दुस्तान नदारद
देख रहा हूँ गुमसुम बचपन
वो निश्छल मुस्कान नदारद
घर में वैसे सब कुछ ‘रौशन’
रिश्तों का सम्मान नदारद