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स्त्री! तू सोच तो जरा / रंजना जायसवाल

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तेरे आँसुओं से नहीं पसीजा
धरती का कलेजा
खड़े रहे पाषाण-हृदय
ऊँचे-ऊँचे पर्वत
नदियों ने नहीं बदली दिशाएँ
न ही उबला समुन्दर
तेरी आह और चीखों के बीच
मनीषियों ने रची ऋचाएँ
मन्त्र और संहिताएँ
चलते रहे कार्य-व्यापार
साहित्य और संस्कृति के
सौन्दर्य के प्रतिमानों ने
तेरी आँखों के कोरों से रिसते
आँसू अनदेखे किये
रस, अलंकार, छन्दों के
मोहक पाश में बाँधी गयी
चिताओं पर जिन्दा बैठाई गयी
मण्डियों में जिंसों की मानिन्द
बेची गयी, खरीदी गयीं
दस हाथों की देवियाँ
सती चौरों के निर्जीव पत्थरों में
पूजी गयी
असंख्य अन्याय सहकर भी
लगातार छले जाते हुए
तेरे भीतर संवेदनहीन दुनिया में
संवेदना की उम्मीद
मृग-मरीचिका तो नहीं
संवेदना भी आज की बाजारू दुनिया में
‘माल’ है बस
सोच, तो जरा-
इमारत की नींव की सबसे निचली ईंट
करवट बदलना चाहे
पूरी इमारत हिल जाएगी
सम्भव है जमींदोज हो जाए
सभ्यता और संस्कृति की सम्पूर्ण इमारत
पाषाण-युग से आज साइबरनेटिक्स
कम्प्यूटरयुग में भी नींव है स्त्री ही
तुझे करवट बदलनी ही होगी
सिन्दूर, बिन्दिया, चूड़ियों
और रिश्तों के महानतम जाल
कर्तव्यों की लम्बी फेहरिश्त
जो जबरन गले लटकाई गयी है
तोड़ देना होगा गऊ-संस्कारों को
होना पड़ेगा कठोर और निर्मम
तू प्रेम और सिर्फ प्रेम करती हुई,
गुलाम में तब्दील हो गयी
यही नहीं अनारकली दीवारों में
चिनवा दी गयी
आखिर तेरे आँसुओं से
कायनात का कोई तो कोना गीला हो
सिर्फ भीगता है तेरा ही आँचल-सम्पूर्ण वजूद
तो, तू सोच तो जरा।