भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्त्री हूँ मैं / पूनम गुजरानी
Kavita Kosh से
कभी पुरुष
कभी समाज
कभी सोच
कभी मर्यादा
देते हैं मुझे धक्का
पेङ की
पतली टहनी से
पर मैं...
गिरने से पहले
सीख जाती हूँ उङना
अनंत आसमान में
जहाँ ख्वाहिशों के
सतरंगी रंग
सजते हैं
मेरी रंगोली में
आंचल में मचलती है
किलकारियाँ
क्यों कि स्त्री हूँ मैं
गिरना स्वभाव नहीं मेरा
मैं जानती हूँ
सूखे तिनकों से
घोंसला बनाने का हुनर।