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स्मिता और तुम / लोग ही चुनेंगे रंग

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तुम्हारे लिए सोचता था तब
स्मिता की मौत
पर स्मिता और तुम कविता लिखी थी जब.

स्मिता की तरह धुँधली हो गईं तुम्हारी आँखें
उस दिन दफ्तर से यूनिवर्सिटी गेट की तरफ
जाते दिल यूँ धड़का जैसे खुद ही मर चुका

वापस मुड़ा तुम्हारे होंठों को अपनी ज़रूरत बतलाने
दरवाज़ा खोलते ही तुमने ज़िक्र किया
अगले दिन की रैली का जब
पिछली खिड़की के बाहर बादलों ने मुझे 'हलो' कहा

वे दिन वे दिन थे.
बादल, रैली, तुम, स्मिता, मैं.

अब स्मिता की शक्ल याद है (अगली बार मौका मिलते ही
उसकी फ़िल्म ज़रूर देखूँगा) तुम्हारा जिस्म अधिक, शक्ल कम.

साढ़े ग्यारह साल बाद कैसा हिसाब
सच यह कि मैं था, तुम थीं, स्मिता थी.