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स्याम! तोय नैननि रखूँ छिपाय / हनुमानप्रसाद पोद्दार

स्याम! तोय नैननि रखूँ छिपाय।
प्रेम-डोर तैं बाँधि चरन तव, राखूँ उर बिच लाय॥
देखन दन्नँ न काहू कौं मैं कबहुँ परम धन रय।
किंतु बन्यौ वह रहै निरंतर मेरे लोचन-गय॥
कबहुँ नायँ मैं देखयौ-जान्यौ मन तैं काहू अन्य।
सौंपि सहज सर्बस्व समुद, हौं भ‌ई सबहि विधि धन्य॥
देखत-सुनत, खात-पीवत, सब करत जगत-यौहार।
जागत-सोवत सदा एक, बस, सुरति तुम्हारी सार॥
तन-मन, धन-जन, जीवन-जौबन, ममता-मद-‌अभिमान।
प्रानि-पदार्थ-परिस्थिति सब कुछ तुम, प्राननि के प्रान॥
पलक अदरसन सहन होत नहिं, याकुल चित अधीर।
निकसन चहत प्रान तब तन तैं, बढ़त भयानक पीर॥
हौं अति दीन-मलीन, रूप-गुन-हीना अबला नारि।
अवहेला मत करियो कबहूँ, निज दिसि देखि मुरारि!
रहियो सदा बसे प्राननि में, सदा कीजियो सार।
जानि मोय चेरी चरननि की, रखियो नित्य दुलार॥