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स्यामकी लीला सुख की खान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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स्यामकी लीला सुखकी खान।
प्रकटत दुरत पलहि पल हम सँग खेलत करत गुमान॥
दीखत ही, नहिं दीखत कबहूँ, नहिं दीखत दरसात।
आवनमें जावन सो लागत छिन छिन आवत जात॥
हँसत हँसात, नचावत नाचत, गावत दै दै ताल।
मानत मान, मनावत कबहूँ, रूठि फ्फुलावत गाल॥
छलत छलत मन-मोद भरावत करत फरेबी बात।
नैनन नैन मिलावत कबहूँ, हिय सों हियो लगात॥
बिधुरत मिलत, मिलत ही बिछुरत रात दिना यह काम।
जाग्रत सुपन एक सो मानत लीला करत ललाम॥
तन मन धन मरजाद धरमकी, लोक लाज कुलकान।
भुक्ति मुक्ति सबकी सुधि बिसरी लखि मोहनि मुस्कान॥