भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वदेश-गीत / रामनरेश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सबको स्वतंत्र कर दे यह संगठन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में।
हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में॥
छीने न कोई हमसे प्यारा वतन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

कोई दलित न जग में हमको पड़े दिखाई।
स्वाधीन हों सुखी हों सारे अछूत भाई॥
सबको गले लगा ले यह शुद्ध मन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

अचरज नहीं की साथी भग जायँ छोड़ भय में।
घबरायँ क्यों? खड़े हैं भगवान जो हृदय में॥
धुन एक ध्यान में है, विश्वास है विजय में।
हम तो अचल रहेंगे तूफ़ान में प्रलय में॥
कैसे उजाड़ देगा कोई चमन हमारा?
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

हम प्राण होम देंगे, हँसते हुए जलेंगे।
हरएक साँस पर हम आगे बढ़े चलेंगे।
जब तक पहुँच न लेंगे तब तक न साँस लेंगे॥
वह लक्ष्य सामने है पीछे नहीं टलेंगे।
गाएँ सुयश खुशी से जग में सुजन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥