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स्वप्न नयनों में समाया / प्रेमलता त्रिपाठी
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स्वप्न नयनों में समाया।
कौन मन के द्वार आया।
गूँजती सूने अयन में,
आह उसने फिर जगाया।
धड़कनों को रोक लेती,
श्वांस देकर क्यूँ लुभाया।
दर्द रिश्तों में जगाकर,
प्रीति को पावन बनाया।
ढल गया जो गीत बनकर
फिर लगन ऐसी लगाया।
दूरियाँ मन की मिटा दे,
प्रेम जीवन ने सिखाया।