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स्वर्णमृग / केशव

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जब-जब भी तैरता हूँ
अस्तित्व के गहरे जल में
बाहर की दुनिया का
कोई भी टिमटिमाता संकेत
मुझे समेट नहीं पाता अपने जाल में
अपने होने के साथ
हुआ जब-जब सामना
छटपटाकर सौंप देना चाहा खुद को
जल पर मँडराती
सुनहरी किरणों के हाथों
या अँधकार को
करना चाहा रोशन
पटाखे की लौ से
लेकिन क्या दुनिया के रँगों में
बहने वाला वहशी संगीत
क्या नियति के मार्ग का स्वर्णमृग
कुछ भी टिक न सका
चेतना की सतह पर
आईने पर
पत्थर फेंक देने पर भी
दिखाई दिया हर टुकड़े में
अपना ही चेहरा
भय से काला पड़ा
भ्रमों से छला.