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स्वार्थी 2 / नवीन ठाकुर ‘संधि’

हे माय भारती,
सब्भे छै स्वार्थी।
निःस्वार्थ भाव सें कोय नै चलै छै दाव,
उपरोॅ सें दाँत निपोरै भीतरें राखै छै घाव।
तोरा पर विश्वास जमायलेॅ खूब देखैतौं भाव,
समय पैला पर नोची खैतौं, आरो राखतौं चाव;
हे माय धरती हम्में छीं प्रार्थी।
हे माय भारती,

जब तलक छौं तोरा लग धन-दौलत-पैसा,
गोड़ चुमतौं तोरा पर रखतौं भरपूरें आशा।
रस चुसला पर करतौं वें खूब दिखावा,
गिनी-गिनी वें रोटी खैतौं तोरा लेॅ छुछ्छेॅ तावा।
खाली हाथ "संधि" केना उतारभौं आरती,
हे माय भारती,

शहर गाँव घोर कसबा ताँय
कोय नै मिललै ईमानदार आभी ताँय।
तोरोॅ धन संपत्ति तोरा नै देतौं घरोॅ में मोल,
पलड़ा पेॅ चढ़ाय केॅ तौलतौं बिना मोल के ताल।
ठठरियोॅ नै बचलै, बचलोॅ छै अरथी,
हे माय भारती!!