स्वीया / विमलेश शर्मा
उतराती शाम में
अलगोजे की धुन को गुनते हुए
ताल के किनारे के उस घने वृक्ष को कदम्ब मानना
संभवत: किसी संस्कार का ही हिस्सा था
उगती-मिटती छायाओं के बीच
उस कुइयों से भरे ताल में
जहाँ कहीं-कहीं कुछ रिक्तताएँ थीं
उस श्यामवर्णी-घटी में
'मैं' अपने अक्स की भरावन खोज रही थी
तंग गलियों में भटकते हुए
जीवन के शोर को सुनते हुए
साँझ के पोर-पोर में डूबते हुए
और उस परछाईं को निहारते हुए
मैंने जाना कि
मूलत: 'मैं' जो हूँ
मुझे ठीक वैसा ही रहना चाहिए!
यह बूझते हुए
मन को बात मनवाते हुए
कुछ घाव कराहते हैं
होंठ स्वत: ही बुदबुदाते हैं
कुछ अदृश्य हाथ माथे को सहलाते हैं
और कुछ बेवज़ह
अपने जाल में कसते हैं
ठीक उसी तरह
जैसे क्वार का कुहासा
प्रत्यक्ष को धुँधला देता है
उस धुँधलके को छाँटते हुए
मैंने जाना कि, नहीं
'मैं' जो हूँ, मुझे वैसा ही रहना चाहिए
किसी पथिक ने कहा कि
संसृति सापेक्षता के सिद्धान्त पर काम करती है
यहाँ हर सत्ता के जन्मते ही उसका विलोम उपस्थित है
यहाँ हर सत्ता का स्वीय प्रतिपक्ष है
अत: बेमानी है
पक्ष-प्रतिपक्ष की बात कर कोई विवाद खड़ा करना
और यूँ मैंने जाना कि
यह कहन; 'सापेक्षता मन की राह चलती है'
वस्तुत: एक कुवाच्य है!
वर्णों की ही तरह
जीवन की बारहखड़ी में भी
स्वर रहित वर्ण अंत में रखा जाता है
जैसे सुवास के बाद स्वासा
कुहासे के बाद क्वार
यहाँ सब जीव बारह-बाने नहीं होते
हर रात पूरे चाँद की रात नहीं होती
कुछ रातें तीज-सी कुआँरी होती हैं
और यों मैंने जाना कि
जीवन पूर्णता की ओर बढ़ने का नाम है
जल पर झुकी डाल बस झुकी थी
जल के समीपस्थ होकर भी विलग
मानो कह रही हो
जीवन वस्तुत: स्वीय भावों को जानकर
उन पर विजय पाने की क्रिया भर है
और यों मैंने जाना कि
स्वीया होना
अहमेव होना नहीं
वरन् 'स्व' को जानने का भाव है!