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हँसते ही / गिरिजा अरोड़ा
Kavita Kosh से
मुझे नहीं मालूम कैसे
पर हँसते ही
फूल खिल जाते हैं
दिल मिल जाते हैं
गम के स्तंभ हिल जाते हैं
रंग छा जाते हैं
ढंग भा जाते हैं
दंभ के व्यंग सकुचाते हैं
राग बज जाते हैं
भाग जग जाते हैं
हर्ष के पल मिल जाते हैं
पर्दे उठ जाते हैं
अंतर घट जाते हैं
छल के बल घट जाते हैं
बंधन खुल जाते हैं
रस्ते मिल जाते हैं
दर्द के दंश घुल जाते हैं
मुझे नहीं मालूम कैसे
पर हँसते ही
तत्व अमरत्व के पास आते हैं
और
अम्ल आसुरी मुड़ जाते हैं