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हमारे गाँव में लड़कियाँ / हरे प्रकाश उपाध्याय

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हमारे गाँव में लड़कियाँ
हमारे गाँव में लड़कियाँ
अब भी अपशगुन की तरह होती हैं
इनके जन्म पर मां आंख मीच मीचकर रोती है
बाबूजी के दिल में पत्थरों की बारिश होती है
ज्यों ज्यां फूल की तरह खिलती हैं
चंाद की तरह चमकती हैं लडकियां
मां बाप के सिर पर
बोझ की तरह भारी होती जाती हैं लडकियां
वे दो तीन रोटी खाती हैं
एकाध गिलास पानी पीती हैं
घर में सबके जूठे बर्तन धोती हैं
वे दूध अब भी नहीं पीती हमारे गांव
कभी महुआ तर कभी सिलबट्टे तर
कभी चक्की तर कभी चूल्हे तर उनके ठांव
आंसू पीना खूब जानती हैं लडकियां हमारे गांव
दूर नदी से फींच हैं गडतर सरतर
घर को बनाये रखना चाहती है सुन्दरतर
बढिया से बढिया कई व्यंजन पकाती हैं
खुद महीने में चार पांच दिन उपवास रह जाती हैं
बेचारी
साज संवार की चीजें
गमकौआ तेल
और साडी भी नहीं खोजतीं
मां के गम खाती
अकसर करूण स्वर में कुछ गाती हैं
बबुआ भतीजा के गू मूत करती हैं
उनके पैरों में चट्टी पुरानी
छोटी पडने लगती हैं मगर
घिस नहीं पातीं
फीते अटूट बचे रहते हैं
लडकियां हमारे गांव की दौड नहीं लगाती
वे दुख में भी हंसती हैं
और रात में रोती है नींद के भीतर
क्यों भारी मानी जाती हैं लडकियां
जवान होने के बाद?