हमारे बगल के जिले का कवि / शचीन्द्र आर्य
वह मेरा हमउम्र है। बहुत पहले से वह कविताएँ लिख रहा है।
मैंने उसकी कवितायें पढ़ते हुए सबसे पहले उसमें गाँव को ढूँढा।
वह नहीं मिला, तब उनमें बचपन की स्मृतियों को टटोलने लगा।
उसने गाँव पर कोई कविता नहीं कही, न उन बीत गए दिनों पर उसने कुछ कहा।
मुझे नहीं पता, वह किस उम्र में पहली बार इस शहर आया होगा?
उसने यहाँ आकर नौकरी, आसमान, प्रेम, देह, सपने सब पर कविता लिखी।
कभी सोचता, वह सबके साथ रहता है या अकेले रहता आया है?
साथ रहे या न रहे, लगता, माता-पिता पर तो ज़रूर कुछ पर कहा होगा।
मैं ग़लत था। वह उसके अंदर रेत पर तरबूज की बेल बनकर उग नहीं सके।
उनके इस तरह न मिलने की बेचैनी में तब घाघरा नदी को ढूँढा।
इसे पार किए बिना कोई उस तरफ़ नहीं जा सकता। उस तरफ़ वह था।
जब वह भी नहीं मिली, तब मुझे दुख से ज़्यादा आश्चर्य हुआ।
कैसे यह नदी उसके अनुभव का हिस्सा नहीं बन सकी?
जो ख़ुद इतनी तरल हो, उसकी नमी कुछ तो उसे भी अंदर से भिगो रही होगी।
वह हमारे बगल के जिले का कैसा कवि है, जिसकी इस नदी पर कोई कविता नहीं है?
बहुत बाद में मुझे एहसास हुआ,
वह प्रेम का कवि है और मैं उसमें स्मृतियों को खोज रहा था।