हमें एक दूसरे को / अज्ञेय
हमें एक-दूसरे को कुछ नहीं कहना है, फिर भी हम क्यों रुके हुए हैं?
हम क्यों अपने को एक-दूसरे से बाँधने का प्रयत्न कर रहे हैं-जब कि हमारे बीच में पीड़ा के अतिरिक्त किसी बात का सान्निध्य नहीं है?
हम दोनों बहुत दूर के यात्री हैं। हम दोनों ही अपने बन्धु-बान्धवों को छोड़ कर उन्हें कष्ट दे कर और दु:खित करते हुए, यहाँ पहुँचे हैं और हमारा मिलन हुआ है।
किन्तु हमारे मिलन में अपरिचय के अतिरिक्त कोई भाव नहीं है।
हम दोनों एक-दूसरे को अजनबी की तरह घूरते हैं-और उस घूरने में सहानुभूतिपूर्ण कौतुक तक नहीं है-केवल एक क्षीण विरोध का भाव है।
मानो हम वर्षों तक सुदूर देशों से पत्र-व्यवहार करते रहे हों, और अपने हृदय में एक-दूसरे की दिव्य मूर्तियाँ स्थापित किये हों। वास्तविकता की चोट से ये मूर्तियाँ, जो पुरानी होने के कारण सच्ची जान पड़ती थीं, टूट गयी हैं-और हम आहत, पीडि़त और दृप्त भाव से खड़े हैं। हमारा अपरिचय पूर्ववत् हो गया है।
हम अपरिचित हैं, प्रेम नहीं करते। इतना भी प्रेम नहीं कि भलीभाँति घृणा ही कर सकें।
फिर हम इस व्यर्थ लीला को छोड़ कर अपने विभिन्न पथों पर यात्रा क्यों नहीं किये जाते-क्यों रुके हुए हैं?
दिल्ली जेल, 30 अक्टूबर, 1932