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हम छले गए / दिनेश सिंह
Kavita Kosh से
हमने-तुमने
जब भी चाहा
द्वापर-त्रेता सब चले गए !
हम छले गए !
रथ नहीं रहे
ना अश्व रहे
ना दीर्घ रहे
ना ह्र्स्व रहे
मुट्ठी में तनी हुईं वल्गाओं के
छूटे वर्चस्व रहे
उनकी पीठों से
छिटके हम
अपनी ही पीठें मले गए
हम छले गए !
ना छन्द रहे
ना मन्त्र रहे
जो यावत रहे
स्वतन्त्र रहे
चुप्पी में रहे आग बनकर
आहट पर मारक यन्त्र रहे
'कुरु स्वाहा'
दूजे पर हिम-सा गले गए
हम छले गए !