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हम विज्ञापन बन जाते / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
डल से
लोहित तक
ये बादल
ख़बरें ही बरसाते ।
रोज़ विमानों से
गिरतीं हैं
रोटी की अफ़वाहें
किन्तु कसे हैं
साँप सरीखी
तन लहरों की बाहें
अन्तरिक्ष से
चित्रित हो हम
विज्ञापन बन जाते ।
किस दड़बे में
लाशों का था
सब से ऊँचा स्तूप
खोज रही हैं
गिद्ध्-दृष्टियाँ
अपने-अपने ‘स्कूप’
कितने क़िस्मत वाले हैं हम
मर सुर्खी में आते ।
कल तक सहते थे
लूओं का
हम ही क़त्ले-आम
आज हमारी ही बस्ती में
बिजली का कुहराम
बची-खुची साँसें
निगलेंगी
कल पाले की रातें