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हरी हरी गोबर घोलती / मालवी
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					   ♦   रचनाकार: अज्ञात
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हरी हरी गोबर घोलती
गज मोती चौक पुरावो
कुम्भ-कलश अमृत भरियाजी
जानूं मोरित आज
आवो म्हारा रामचंद आवजो
जाकी जोती थी वाट
ऊँची अटारी रगमगी
दिवलो जले रे उजास
खेला-मारूणी खेले सोगटा खोलो मनड़ा री बात
आबो म्हारा रामचंद आवजो
जेकी जोती थी वाट
लीली दरियाई को घाघरों
साड़ी रंग सुरंग
अंगिया पहने कटावकी जी
बंदा खोलो सुजान
छींकत घोड़ीला जीण कस्या
बरजत हुवा असवार
राय आंगण बिच धन खड़ी
पीवू खड़ाजी, जीवो छींकन हार।
	
	