हल की क़लम से / बाल गंगाधर 'बागी'
रैना गुजरी बदरी हिय की, चहुं ओर पपीहा मोर दिखे
गति की कजरी पिय की समधी, दुख से नाता जोड़ गये
मेरे कंगन हाथ गुलामी के, मेरी दादी और मेरी नानी के
विरहा में गाती है कजरी, सखि रहब न हम अपमानी में
हम झूले तृष्णा डाली, सुख चैन की बगिया छांव रहे
हों हजार खग संग क्रीड़ा में, न ऊंच नीच अलगाव रहे
गठरी लादे कुछ खाने की, औ कंधों पर बच्चे बैठे रहे
लड़खड़ा बड़े जीवन की डगर ममता, सावन साथ चले
हो खुली हवा की सांसों में, सबका जीवन खुशहाल रहे
न हो जाल पंछियों के पैरोे, सब गगन में पंख पसार रहें
न आहुति को समता रस की, जहाँ जीवन में अपमान न हो
हर समय वहाँ गतिशील रहे, अपनी गुदड़ी बदनाम न हो
सूखी गीली मिट्टी में चल, हल बैल को कैसे थाम रहे
कड़ी धूप ठंडक में भी, पसीने में प्यास विश्राम करे
रौशनदान, उनकी दीवारों में, कब बन पाते हैं
वे हर मौसम में ठिठुर-ठिठुर, झोपड़ी में रात बिताते हैं
सर्द हवा के झोकों से, जम जाती हैं उनकी आंखें
जो जमती हैं पत्थर सी, न कह पाती हैं कुछ बातें
हल बैल मेरे बीबी मेरी, न हृदय बच्चों के शाम ढले
हल के क़लम की स्याही से, सतत गुलामी तोड़ चले
फटे कंबल चारपाई से क्यों, उदास झांकती हैं आंखें?
देख घर की गाय बकरियों को, बछड़ों से बैल बनी यादें
यह मेरी तरह सवर्णों के एक दिन खेतों में जोते जायेंगे
फर्क इतना होगा ये मेरे पीछे, कभी आगे भी हो जायेंगे
चले राह मिल जाये धुन, हम विरहा में हो जाये गुम
कोई न संग दीप हमारे, चले जहाँ तक शाम ढले
घर से पगडण्डी सड़कों तक, बैलों की नज़रें सोचेगी
बैलों सी हालत देख मेरी, खूंटों से रस्सी खींचेगी
वे ‘बाग़ी’ होंगे हलवाही, क्या हल चलने की चाहत से?
रोम-रोम से उनके अगर, कुछ भी चिन्गारी फूटेगी
खुशी ही होगी सुबह, जगमग क्रांति ज्योति लिये
मन मेरे कुछ प्रीत जगे औ, भाव-विभोर संगीत बजे