हवा / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
पहड़ी किनारा में टौवैतें हवा सें
पूछलिये एक दिन-
”की करी रहली छोॅ?
ढारोॅ पर खाढ़ोॅ जुआन-जान सागवान;
अधबैसू साल; बच्चा छतनार;
केकरा छाती में कसै लेॅ; केकरा सें रसैलेॅ
खुमसली अकेली घूमै छोॅ?
आकी अकेला में
मातली जुआनी में इतरैली झरना सें
कही लेॅ चाही छोॅ एक बात मनोॅ के?
की कोय छबारिकें ने कनखी सें भेजलखौं
अपना गुलामी के परवाना?
की तोहें ऊपरोॅ सें कूढ़ी केॅ देखलैल्हौ
अपना जुआनी के ताव?
आकी कोय प्रेमी ने भेजने छौं कोनो संमाद,
जेकरा सें छाती में किलकै छौं खून?
चाही छोॅ झरना सें कहीं केॅ
भोगै लेॅ चर्चा के सूख?“
सुनी केॅ मुस्कली चुपचाप कुछु देर
आँखी सें ढारलकी नेह
झोरी बिथारी केॅ राखलकी आगू में
कहलकी-‘देखी लेॅ हे
बाँटै के हमरोॅ सब साज छौं यही में
यहेॅ टा हमरोॅ बस काम
यही लेॅ घूमै छी बनोॅ-पहाड़ोॅ में
हरदम बहाबै छी घाम!“
झूकी केॅ देखलिये
कटहर-गुलाबोॅ के चम्पा-चमेली के गंध,
ठाम्हैं टा धरलोॅ बबूरो गन्हौवा के
लारा के पचलोॅ दुर्गन्ध
कैथोॅ के कस्सोॅ, फुलकौड़ी के तित्तोॅ
खटरूसोॅ अमड़ा के स्वाद
मरचाय के करूवोॅ केतारी के मिट्ठोॅ
ऐतखोॅ चूड़ा के गाद
तहियैलोॅ धरलोॅ छै
सभे टा एक-एक मेवा-मवादोॅ के ढेर
गंगा के पानी, गुगड़िया के कादोॅ
की-की सब लागलै नै टेर।
”जेकरा जे लागै छै अच्छा अपनाबै छेॅ
झोरी के खुललोॅ छै मूँ
घूमै छीं अकेली बनोॅ-पहाड़ोॅ में
गामोॅ में, शहरोॅ में, नदी-समुद्रोॅ में
मरुभूमि-मरुभूमि भटकै छीं बनी केॅ लू।“
सुनी कै अतरज सें खुललै जे आँख
रहलै पसरलै दू कमलोॅ के पाँख!