भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवा को आजमा कर देखना था / भावना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवा को आजमा कर देखना था
कोई दीपक जला कर देखना था

कभी खुद को सता कर देखना था
जरा-सा छटपटा कर देखना था

वो कैसी चीख थी गलियों में उसकी
दरीचे में भी जाकर देखना था

कहीं बैठा न हो चंदा फ़लक पर
ज़रा बादल हटा कर देखना था

तुझे आती न कैसे नींद गहरी
पसीने को बहाकर देखना था

बदलती करवटों में रात को भी
ग़ज़ल इक गुनगुनाकर देखना था