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हाय रे कपार! / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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केहन छैल गुमकी, आ केहन छलै ताप?
बाप बाप करय लोक देखि ओकर दाप
कोना सुखा रहल छलै लोक केर कण्ठ,
देशक भगवान कोना भेल छला चण्ठ?
देशक भरिक प्रान कोना छलै अकबकाइत,
मुँह-पुरूषो लोक डरेँ छला सकपकाइत।
केहन केहन कहबैका बैसल दम साधि,
जकड़ि लेने रहै जेना एक रंग व्याधि।
एक रंग हवा-पानि, एक्के रङताल,
अपने लै छोटका सँ बड़का बेहाल।
भेल सकल सुविधा किछु मुट्ठी मे बन्द,
तखन कोना उदित होइत कतहु कोनो छन्द।
देशक बलिदानी सब राति-राति जागि,
फाँड़बान्हि भिड़ल छला अन्न-पानि त्यागि,
चिनगी सुनगयबा मे गेल छला लागि
तखन जाय पजरि सकल, क्रान्ति केर आगि।
कते उठल बिड़रो, कतेक ने बिहाड़ि।
तखन राष्ट्र सकल द्वन्द्वकेँ पछाड़ि।
जागि गेल गर्व हमहि थिकहुँ मूत्तिकार
लेब बना एकसर पुनि दोसर संसार।
माँटिक लऽ थुम्हा हम गढ़लहुँ जे मूर्ति
ताहीसँ भेल सकल साधनाक पूर्ति।
गढ़लहुँ गणेश, मुदा वानर बनि गेल
हाय रे कपार! हाय विधिनाक खेल।