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हाशिए पर खड़ा जीवन / अरविन्द यादव
Kavita Kosh से
आज इतनी लंबी यात्रा के बाद भी
दिखाई देते हैं बैसे ही काफिले
चमचमाती कारें
उनमें ठुसे हुए बैसे ही अनगिनत चेहरे
करते हुए बैसी ही बातें
जैसी सुनी थी बचपन में
बाबा के मुख से
बाबा भी कहते थे उनके बाबा भी
बताते थे यही कि
उनके सामने भी चमचमाती कार में भी
आते थे ऐसे ही लोग
गांव के बीच मुखिया कि चौपाल पर
देखकर चमक उठती थी गाँव भर की आँखें
भविष्य के सपनों से
पसीने की बदबू के वीच महक उठते थे गुलाब
और गूँज उठती थी चौपाल जयघोष से
परन्तु दुर्भाग्य
बदल गए चेहरे
बदल गईं गाडियाँ
और गाड़ियों पर लहराते झंडे
पर नहीं बदले तो वादे
दूर पनघट से आतीं घडों की कतारें
कच्ची सडकें
अंधेरों से आवृत्त टूटी झोपडियाँ
और हाशिए पर खड़ा जीवन