हिंदी दोहे-1 / रूपम झा
मीरा-सी मैं हूँ नहीं, मैं लघु रचनाकार।
लिखूँ कभी तो सच लिखूँ, मेरा यही विचार।।
घटा सुहानी शाम की, छाई है भरपूर।
कहती है नजदीक आ, क्यों है मुझसे दूर।।
बेचैनी का है सबब, ममता, माया, नेह।
मौसम-मौसम में दुखी, जीवन, मन औ देह।।
चार दुनी भी दो कहे, गणित बदलते आज।
नीचे से ऊपर तलक, रुपयों का है राज।।
श्वान, नाग, गिरगिट सदृश, कलयुग के इंसान।
रुपया इनका धर्म है, रुपया ही ईमान।।
जिस बेटे को मानते, थे भविष्य की आस।
वो बस गया विदेश में, तोड़ सभी विश्वास।।
कदम-कदम पर बाज हैं, गौरैये लाचार।
करना होगा अब हमें, इस पर तनिक विचार।।
पढ़ा रहे कॉन्वेंट में, हम अपनी संतान।
और चाहते हिन्द में, हिंदी का उत्थान।।
बहुत सड़क के हादसे, ब्रेकर देता रोक।
रुकता भ्रष्टाचार भी, यदि हम देते टोक।।