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हिमालय पर उजाला / माखनलाल चतुर्वेदी

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लिपट कर गईं बलवान चाहें,
घिसी-सी हो गईं निर्माल्य आहें,
भृकुटियाँ किन्तु हैं निज तीर ताने
हुए जड़ पर सफल कोमल निशाने।

लटें लटकें, भले ही ओठ चूमें,
पुतलियाँ प्राण पर सौ साँस झूमें।
यहाँ है किन्तु अठखेली नवेली,
हिमालय के चढ़ी सिर एक बेली।

नगाधिप में हवा कुछ छन रही है,
नगाधिप में हवा कुछ बन रही है।
किरन का एक भाला कह रहा है,
हिमालय पर उजाला हो रहा है।

रचनाकाल: खण्डवा-१९५२